पचपन साल के भोजपुरी फिल्मो के इतिहास में अगर हम शुरू के पैतालीस साल को जाने दे और पिछले दस साल की चर्चा करें तो शुरू के उन पैतालीस साल की तुलना में आखिर के दस साल में बनी फिल्मो की तादात कहीं अधिक है। १९६२ में बनी पहली फिल्म हे गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो से लेकर २००३ में आयी सैया हमार तक कोई साल ऐसा नहीं रहा जब साल में १५ फिल्मे भी रिलीज़ हुई हो , लेकिन २००३ की सैयां हमार से लेकर आज रिलीज़ हो रही राम लखन व दुल्हन चाही पाकिस्तान तक कोई साल ऐसा नहीं है जब पचास के आसपास फिल्मे रिलीज़ ना हुई हो। इसकी प्रमुख वजह रही भोजपुरी में भी स्टार वैल्यू की शुरुवात हुई और हिंदी व अन्य क्षेत्रीय फिल्मो का निर्माण कर रहे निर्माताओ ने इस ओर रुख किया। नतीजा यह निकला की भोजपुरी में फिल्मो की बाढ़ सी आने लगी। पहले रवि किशन और मनोज तिवारी ने इन फिल्मो का सेहरा अपने सर पर बांधा बाद में निरहुआ, पवन सिंह और खेसारी लाल ने उनका बखूबी साथ दिया। फिल्म निर्माण की संख्या बढ़ने से इस क्षेत्र से जुड़े लोगो में रोज़गार की संख्या बढ़ गयी। कई सिंगल स्क्रीन जो बदहाल थे आबाद हो गए। मुम्बई के सिंगल स्क्रीन को तो भोजपुरी फिल्मो ने ही ज़िंदा रखा है। इन सारी अच्छाइयों के बीच एक बड़ी बुराई भी आयी। फिल्मो की तादात और कई सारे स्टार्स के उदय से फिल्मो के रिलीज़ से जुडी एक बड़ी कठिनाई सामने आयी। चुकी त्यौहार पर छुटियाँ होती है और लोग अधिक संख्या में फिल्मे देखते हैं इसीलिए इस अवसर पर कई सारी फिल्मे रिलीज़ होने लगी। त्यौहार पर दर्शको की तादात अधिक होती है इसीलिए उन फिल्मो को दर्शक काफी मिले भी लेकिन त्यौहार के अलावा कई फिल्मो के एक साथ रिलीज़ होने का खामियाजा फिल्मो को उठाना पड़ा है। भोजपुरी के दर्शक वर्ग फिक्स हैं उनमे बढ़ोतरी तब होती है जब किसी फिल्म को महिला दर्शक पसंद करने लगती है , वैसे भोजपुरी में ऐसी कम ही फिल्मे होती हैं जिन्हें महिलाएं देखने जाती है। खैर , मूल मुद्दे की बात यह है की भोजपुरिया बॉक्स ऑफिस पर अक्सर बिना त्यौहार वाले सप्ताह में भी कई फिल्मे एक साथ दस्तक दे जाती है। नतीजा सारी फिल्मो को नुक्सान उठाना पड़ता है। स्थिति तो हास्यास्पद तब हो जाती है जब एक ही अभिनेता की दो दो फिल्मे एक ही दिन रिलीज़ हो जाती है। हिंदी फिल्म जगत में भोजपुरी से चार गुना ज्यादा फिल्मे बनती है पर वहाँ कभी कभार ही दो बड़ी फिल्मे आपस में टकराती है , पर भोजपुरी में अक्सर ऐसा होता। इन लड़ाई का खामियाजा निर्माता , निर्देशक और कलाकारों को भी उठाना पड़ता है। आज दो फिल्मे बिहार में रिलीज़ हो रही है दोनों के वितरक बड़े हैं जाहिर हैं सिनेमाहॉल्स की तादात भी अधिक होगी और अधिकतर सेंटर पर फिल्म आमने सामने होगी। ऐसे में भोजपुरी के दर्शक जो अधिकतर मेहनतकश होते हैं अपने पॉकेट के हिसाब से किसी एक फिल्म को देखेंगे ? जाहिर है दोनों फिल्मो को कुछ ना कुछ नुक्सान अवश्य होगा। यही फिल्मे अगर अलग अलग तिथि को रिलीज़ होती तो निसंदेह इसका फायदा दोनों ही फिल्मो को होता। इसीलिए भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्रीज की भलाई इसी में है की मुछ की लड़ाई से आगे निकले , व्यावसायिक दृष्टिकोण अपनाये , खुद जिए और दूसरों को भी जीने दें।
Thursday, August 11, 2016
जियो और जीने दो
पचपन साल के भोजपुरी फिल्मो के इतिहास में अगर हम शुरू के पैतालीस साल को जाने दे और पिछले दस साल की चर्चा करें तो शुरू के उन पैतालीस साल की तुलना में आखिर के दस साल में बनी फिल्मो की तादात कहीं अधिक है। १९६२ में बनी पहली फिल्म हे गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो से लेकर २००३ में आयी सैया हमार तक कोई साल ऐसा नहीं रहा जब साल में १५ फिल्मे भी रिलीज़ हुई हो , लेकिन २००३ की सैयां हमार से लेकर आज रिलीज़ हो रही राम लखन व दुल्हन चाही पाकिस्तान तक कोई साल ऐसा नहीं है जब पचास के आसपास फिल्मे रिलीज़ ना हुई हो। इसकी प्रमुख वजह रही भोजपुरी में भी स्टार वैल्यू की शुरुवात हुई और हिंदी व अन्य क्षेत्रीय फिल्मो का निर्माण कर रहे निर्माताओ ने इस ओर रुख किया। नतीजा यह निकला की भोजपुरी में फिल्मो की बाढ़ सी आने लगी। पहले रवि किशन और मनोज तिवारी ने इन फिल्मो का सेहरा अपने सर पर बांधा बाद में निरहुआ, पवन सिंह और खेसारी लाल ने उनका बखूबी साथ दिया। फिल्म निर्माण की संख्या बढ़ने से इस क्षेत्र से जुड़े लोगो में रोज़गार की संख्या बढ़ गयी। कई सिंगल स्क्रीन जो बदहाल थे आबाद हो गए। मुम्बई के सिंगल स्क्रीन को तो भोजपुरी फिल्मो ने ही ज़िंदा रखा है। इन सारी अच्छाइयों के बीच एक बड़ी बुराई भी आयी। फिल्मो की तादात और कई सारे स्टार्स के उदय से फिल्मो के रिलीज़ से जुडी एक बड़ी कठिनाई सामने आयी। चुकी त्यौहार पर छुटियाँ होती है और लोग अधिक संख्या में फिल्मे देखते हैं इसीलिए इस अवसर पर कई सारी फिल्मे रिलीज़ होने लगी। त्यौहार पर दर्शको की तादात अधिक होती है इसीलिए उन फिल्मो को दर्शक काफी मिले भी लेकिन त्यौहार के अलावा कई फिल्मो के एक साथ रिलीज़ होने का खामियाजा फिल्मो को उठाना पड़ा है। भोजपुरी के दर्शक वर्ग फिक्स हैं उनमे बढ़ोतरी तब होती है जब किसी फिल्म को महिला दर्शक पसंद करने लगती है , वैसे भोजपुरी में ऐसी कम ही फिल्मे होती हैं जिन्हें महिलाएं देखने जाती है। खैर , मूल मुद्दे की बात यह है की भोजपुरिया बॉक्स ऑफिस पर अक्सर बिना त्यौहार वाले सप्ताह में भी कई फिल्मे एक साथ दस्तक दे जाती है। नतीजा सारी फिल्मो को नुक्सान उठाना पड़ता है। स्थिति तो हास्यास्पद तब हो जाती है जब एक ही अभिनेता की दो दो फिल्मे एक ही दिन रिलीज़ हो जाती है। हिंदी फिल्म जगत में भोजपुरी से चार गुना ज्यादा फिल्मे बनती है पर वहाँ कभी कभार ही दो बड़ी फिल्मे आपस में टकराती है , पर भोजपुरी में अक्सर ऐसा होता। इन लड़ाई का खामियाजा निर्माता , निर्देशक और कलाकारों को भी उठाना पड़ता है। आज दो फिल्मे बिहार में रिलीज़ हो रही है दोनों के वितरक बड़े हैं जाहिर हैं सिनेमाहॉल्स की तादात भी अधिक होगी और अधिकतर सेंटर पर फिल्म आमने सामने होगी। ऐसे में भोजपुरी के दर्शक जो अधिकतर मेहनतकश होते हैं अपने पॉकेट के हिसाब से किसी एक फिल्म को देखेंगे ? जाहिर है दोनों फिल्मो को कुछ ना कुछ नुक्सान अवश्य होगा। यही फिल्मे अगर अलग अलग तिथि को रिलीज़ होती तो निसंदेह इसका फायदा दोनों ही फिल्मो को होता। इसीलिए भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्रीज की भलाई इसी में है की मुछ की लड़ाई से आगे निकले , व्यावसायिक दृष्टिकोण अपनाये , खुद जिए और दूसरों को भी जीने दें।
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